देहरादून। ब्रितानवी हुकूमत के दौरान सजावटी के पौधे के तौर पर लाए गए चीड़ (चिर पाइन) ने उत्तराखंड के बड़े हिस्से पर कब्जा जमाकर चिंता बढ़ा दी है। वन महकमे के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो प्रदेश के कुल वन भूभाग के करीब 16 फीसद हिस्से में चीड़ के जंगल पसर चुके हैं। इससे आग की घटनाओं का अंदेशा बढ़ जाता है।
असल में चीड़ की पत्तियां, जिन्हें स्थानीय बोली में पिरूल कहा जाता है, ज्वलनशील होती हैं। फायर सीजन के दरम्यान चीड़ की पत्तियां और फल, जंगलों में आग के फैलाव का बड़ा कारण बनते हैं। यही नहीं, जंगलों में जमा होने वाले पिरुल के कारण जहां दूसरी वनस्पतियां नहीं उग पातीं, वहीं बारिश का पानी धरती में नहीं समा पाता।
वहीं, अम्लीय गुण के चलते पिरुल को जमीन के लिए अच्छा नहीं माना जाता। हालांकि, वन महकमे ने चीड़ के पौधों का रोपण तो बंद कर दिया है, लेकिन प्राकृतिक रूप से इसका निरंतर फैलाव हो रहा है।
बांज वनों में दस्तक
उत्तराखंड में पांच हजार फीट से अधिक की ऊंचाई पर बांज (ओक) के जंगलों में भी चीड़ ने दस्तक दे दी है। जैवविविधता के साथ ही जल संरक्षण में सहायक बांज के जंगलों में चीड़ की घुसपैठ ने हर किसी को सोचने पर विवश कर दिया है।
जानकारों के मुताबिक यदि चीड़ के फैलाव को रोकने को समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो बांज को सिमटते देर नहीं लगेगी। असल में, सदाबहार बांज जल संरक्षण में सहायक है और इसके जंगलों में लगातार नमी बनी रहती है। अग्निकाल में बांज के जंगल महफूज रहते हैं।
बांज की पत्तियां जहां पशुओं के लिए उत्तम क्वालिटी का प्रोटीनयुक्त चारा है, वहीं पहाड़ में कृषि उपकरण बांज की लकड़ी से बनते हैं। यही नहीं, बांज भू-क्षरण रोकने में सहायक है तो इसकी सूखी लकड़ियां बेहतर ईंधन हैं। सूरतेहाल, बांज वनों में चीड़ की घुसपैठ से बांज को खतरा उत्पन्न हो गया है।
ढूंढना होगा प्रभावी विकल्प
चीड़ से उत्पन्न पर्यावरणीय खतरों को देखते हुए इसे हटाने और इसकी जगह मिश्रित वनों को बढ़ावा देने की बात लंबे अर्से से उठ रही है, मगर ये मुहिम परवान नहीं चढ़ पाई है। अलबत्ता, पर्यावरण के लिहाज से सबसे खतरनाक माने जाने वाले पिरुल के व्यवसायिक उपयोग ढूंढे गए, मगर ये प्रयोगात्मक स्तर पर ही हैं।